इंडिया न्यूज रिपोर्टर डेस्क। कांग्रेस के शासनकाल में वर्ष 2005 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत देश भर में आशा कार्यकर्ता को सेविकाओं की भूमिका में स्थापित किया गया था। अब 17 साल के उपरांत इन आशा कार्यकर्ताओं को अगर वैश्विक स्तर पर पहचान मिल रही है तो यह बहुत बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है।
देखा जाए तो कांग्रेस ने इस तरह की सोच को विकसित किया था और अब जबकि वैश्विक स्तर पर उनके एक प्रयास को पहचान मिल रही है तो कांग्रेस को इस मामले में आशा कार्यकर्ताओं को कम से कम बधाई तो देना चाहिए था।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा हाल ही में आयोजित 75वीं विश्व स्वास्थ्य सभा में आशा कार्यकर्ताओं को ग्लोबल हेल्थ लीडर्स 2022 के सम्मान से सम्मानित किया जाना वास्तव में एक बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है।
देखा जाए तो देश भर की दस लाख से ज्यादा आशा कर्मियों को उनके काम का बहुत बड़ा पुरूस्कार मिला है कि वैश्विक स्तर पर उनकी पहचान बन गई है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वज्ञरा कहा गया है कि आशा कर्मियों को यह सम्मान स्वास्थ्य व्यवस्था से देश के समुदाय को जोड़ने में आशा कार्यकर्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका, सुदूर ग्रामीण अंचलों में जहां के निवासी स्वास्थ्य सुविधाओं की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं, वहां स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने और कोविड के दौरान दी गई सेवाओं के लिए दिया गया है।
वैसे तो पांच देशों के स्वास्थ्य कर्मियों को यह सम्मान दिया गया है, पर भारत के आशा कर्मियों के लिए यह सम्मान बहुत मायने रखता है।
इस दौरान डब्लूएचओ के महानिदेशक डॉ. टेड्रॉस गेब्रेयेसस का कहना सौ फीसदी सही था कि बहुत ही कठिन समय में इन कर्मियों के द्वारा मानवता की निस्वार्थ सेवा की है। जब डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तब आशा कार्यकर्ताओं की सोच को मूर्त रूप दिया गया पर इनकी सुध शायद ही किसी ने ली हो।
देश के सुदूर ग्रामीण अंचलों में स्वास्थ्य सेवाएं निर्बाध रूप से देने वाली आशा कार्यकर्ताओं के काम और महत्व को लंबे समय से सराहा जाता रहा है। इसमें अधिकांश ग्रामीण अंचल की 25 से 45 वर्ष की महिलाएं ही हैं। इनकी मूल जवाबदेही स्वास्थ्य और उचार की बुनियादी सेवाएं गांवों में मिल सके यह होती है।
इनके दायित्वों में यह बात भी शामिल होती है कि स्वास्थ्य से संबंधित कार्यक्रमों में ग्रामीणों की भागीदारी सुनिश्चित हो। महिलाओं और छोटे बच्चों से संपर्क कर उनकी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को कैसे हल किया जाए, यह इनकी कोशिश रहती है। इसके अलावा लोगों के बीच स्वास्थ्य और साफ सफाई से जुड़ी जानकारियों के मामले में जागरूकता बढ़ाने का काम भी इनके द्वारा किया जाता है।
आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि आज मंहगाई के इस युग में भी ये आशा कार्यकर्ता महज दो हजार रूपए प्रतिमाह के पारिश्रमिक पर अपनी सेवाएं देने राजी हो रही हैं। इन्हें स्वास्थ्य विभाग की दीगर योजनाओं जैसे जन स्वास्थ्य योजना, बच्चों का टीकाकरण आदि में सहयोग देने के एवज में एक सौ रुपये से पांच सौ रुपये का भत्ता दिया जाता है। कुछ राज्यों में कुछ अधिक भुगतान होता है, पर वह भी मामूली ही माना जा सकता है।
हाल ही में कोविड काल में इन आशा कार्यकर्ताओं के द्वारा जी तोड़ मेहनत करके, खुद की जान की परवाह न करते हुए ग्रामीण क्षेत्रों में टीकाकरण के मामले में उल्लेखनीय योगदान दिया है।
आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि जिन कार्यकर्ताओं को वेश्विक स्तर पर पहचान मिल रही है उन्हें देश में ही केंद्र और सूबाई सरकारों के अलावा विपक्ष भी बिसारता नजर आता है।
देखा जाए तो आशा कर्मियों के महत्व को सरकारों के साथ सभी को समझना चाहिए। देश में स्वास्थ्य सेवाओं की लचर स्थिति को अगर संभाला है तो इन्हीं आशा कार्यकर्ताओं के द्वारा संभाला गया है।
ये स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता ही नहीं फैलाती हैं, वरन दवाओं का वितरण, प्रसूति के पहले और बाद में बरती जाने वाली सावधानियों सहित अनेक सेवाएं देती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये आशा कार्यकताएं उन ग्रामीण अंचलों में सेवाएं दे रही हैं जहां जाने से चिकित्सक कतराते ही नजर आते हैं।
आशा कर्मियों को न्यूनतम वेतन दिया जा रहा है जो उनके लिए उचित नहीं है। इससे उनके मन में असुरक्षा की भावना भी जाग सकती है और उनके कामकाज पर असर भी पड़ सकता है।
शासन के द्वारा न्यूनतम मजदूरी तय की जाती है कम से कम उसका पालन तो यहां किया जाना चाहिए। इन्हें वाजिब वेतन भत्ते दिए जाने के साथ ही साथ सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान की जाना चाहिए।
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